इसके दूसरे पहलू पर विचार करें तो यह किसी भी स्त्री के लिए शारीरिक और व्यावहारिक रुप से पीड़ा का समय होता है। जिसे प्रसव पीड़ा भी कहते हैं। यह स्त्री के लिए एक कठिन और जोखिम भरा क्षण भी होता है। इससे गुजरकर और सहन कर वह स्वयं के साथ परिवार को खुशियां देती है। इसलिए वह जननी और शक्ति के रुप में जानी जाती है।
प्राचीन ऋषि-मुनियों ने अपने ज्ञान और दूरदर्शिता से मानव जीवन से जुड़ी हर पीड़ा को समझकर उससे निजात पाने के उपाय बताए हैं। धर्म ग्रंथों में यह उपाय व्रत उपवास के रुप में बताए गए हैं। धर्म और ईश्वर में विश्वास करने वाला हर व्यक्ति इनके पालन से कष्टों और पीड़ाओं से मुक्त होकर सुफल पाता है।
स्त्री के गर्भधारण से लेकर प्रसूति तक अनेक सावधानियां, चिकित्सीय उपाय अपनाए जाते हैं। जिससे सुरक्षित प्रसव हो और संतान प्राप्ति के रुप में मनोवांछित और सुखद फल मिले। धर्मग्रंथों में भी इसी भावनाओं को समझकर प्रसव पीड़ा हर व्रत के पालन के रुप में एक सरल प्रयोग बताया गया है, जो न केवल गर्भवती की प्रसव पीड़ा को कम करेगा बल्कि उसे निर्भय और मानसिक रुप से सबल बनाता है। जानते हैं इसकी विधि
- प्रसव की तारीख और समय नजदीक आने पर लगभग पांच या सात दिन पूर्व से गर्भवती की माँ या सास या देखरेख करने वाली निकट संबंधी व्रत रखे। हर दिन पलाश के पत्तों के दोने या कटोरी में तिल का तेल भरें। उसमें २१ स्वच्छ और पवित्र दुर्वा लेकर तेल में धीरे-धीरे घुमावे। हर बार दुर्वांकुर घुमाने पर यह मंत्र बोलें -
हिमवत्युत्तरे पार्श्र्वे शबरी नाम यक्षिणी ।
तस्या नूपुरशब्देन विशल्या स्यात्तु गर्भिणी ।।
इक्कीस बार इस मंत्र का जप हो जाने पर दोने में से थोडा-सा तेल गर्भवती को पिला दें। सहयोगी व्रती स्त्री इस मंत्र का प्रसूति के दौरान जाप करती रहे। ऐसे व्रत पालन से प्रसव और गर्भावस्था की पीड़ा कम होती है। साथ ही सुरक्षित और सुखद प्रसव होता है।
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