Wednesday, November 18, 2009
कर्मयोग श्रेष्ठ है.
मुक्ति के लिए संन्यास (कर्म का त्याग) तथा कर्मयोग दोनों ही उत्तम हैं. किन्तु इन दोनों मे कर्मयोग श्रेष्ठ है. जो पुरुष न तो कर्मफलों से घृणा करता है और न कर्मफल की इच्छा करता है, वह नित्य संन्यासी जाना जाता है. ऐसा मनुष्य समस्त द्वन्द्वों से रहित होकर भव बन्धन को पार कर पूर्णतया मुक्त हो जाता है. अज्ञानी ही ज्ञानयोग तथा कर्मयोग को भिन्न कहते हैं. जो वस्तुत: ज्ञानी हैं वे कहते हैं कि जो इनमें से किसी एक मार्ग का भलीभाँति अनुसरण करता है, वह दोनों के फल प्राप्त कर लेता है. जो यह जानता है कि विश्लेषणात्मक अध्ययन द्वारा प्राप्य स्थान भक्ति द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है और इस तरह जो सांख्ययोग तथा भक्तियोग को एक समान देखता है, वही वस्तुओं को यथारूप में देखता है. भक्ति में लगे बिना केवल समस्त कर्मों का परित्याग करने से कोई सुखी नहीं बन सकता. परन्तु भक्ति में लगा हुआ विचारवान व्यक्ति शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है. जो विशुद्ध आत्मा है, विजितात्मा है और जितेन्द्रिय है, वह सम्पूर्ण प्राणियों के आत्मरूप परमात्मा में एकीभाव हुआ निष्काम कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिपायमान नहीं होता.
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