Wednesday, November 18, 2009
आत्मज्ञान स्वयं के प्रयासों से भी प्राप्त किया जा सकता है.
मनुष्य की आध्यात्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला श्रीमद् भगवद्गीता एक ऐसा सद्ग्रन्थ है जो सुप्रसिद्ध महाकाव्य महाभारत का एक अंश भी है. महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन एक आध्यात्मिक पुरुष हैं. भारत का आध्यात्मिक ज्ञान अपने चरम पर उपनिषदों में उपलब्ध है. गीता का लक्ष्य उपनिषदों के सार तत्त्व को एक गृहस्थ अथवा संन्यासी दोनों के लिए उपयोगी बनाने तथा ब्रह्म विद्या के विविध पक्षों पर प्रकाश डालने का है. योगिराज कृष्ण जो अपनी निर्लिप्तता एवं अलौकिक ज्ञान के कारण भगवान कहलाने लगे थे इस ज्ञान के संवाहक हैं. कृष्ण नाम सगुण ब्रह्म के लिए पहले से प्रचलन में था. गीता के कृष्ण कहीं-कहीं निर्गुण ब्रह्म भी बन जाते हैं. सच तो यह है कि गीता के कृष्ण में परब्रह्म, ईश्वर और विराट रूप का एकीकरण है. साथ ही महाभारतकालीन कृष्ण का लौकिक रूप भी विद्यमान है. गीता के उपदेश संवाद-शैली में हैं. श्रोता महाभारत के नायक अर्जुन हैं जिनकी सुखोपभोग में आसक्ति नहीं है. इन्द्रियों के विषयों में लगाव न होने से व्यक्ति आसक्तिरहित होता है. संस्कृत में अर्जुन का अर्थ उस व्यक्ति से है जिसका जीवन पवित्र और उज्ज्वल हो. जैसे सफेद वस्त्र को किसी भी रंग में रँगा जा सकता है, वैसे ही अर्जुन के मन की भी दीर्घकालिक स्थिति है. अर्जुन शब्द ‘अर्ज्’ धातु से बना है. अत: इसका अर्थ ‘ज्ञानार्जक’ भी हो सकता है. अर्जुन का एक उपनाम ‘कृष्ण’ भी है. इस प्रकार कृष्ण ही गीता-ज्ञान को लिपिबद्ध करने वाला, प्रदाता और ग्रहीता है. हमें इतिहास में अनेक आध्यात्मिक पुरुष ऐसे मिल जायेंगे जो बिना किसी गुरु के अपने ध्यान और तप के बल पर ज्ञान प्राप्त कर लिये. इस आध्यात्मिक ज्ञान को पकड़ने के ढंग अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन किसी स्तर पर सबके पीछे उद्देश्य एक ही है- स्वयं को जानकर परम सत्ता को जानना. इस प्रकार गीता का एक संदेश यह भी है कि आत्मज्ञान स्वयं के प्रयासों से भी प्राप्त किया जा सकता है.
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