जिसको भौरों की गुंजन एवं समुद्र की लहरों में ॐ सुनाई पड़ता हो-------
जो हर पल प्रकृत को मुस्कुराता देखता हो -------
जिसको हिमालय की शून्यता में परम शून्यता सुनाई पड़ती हो-------
जिसको गंगा की लहरों में गायत्री की धुन मिलती हो ------
जिसको यह संसार एक रंग शाला सा दीखता हो -------
जिसको कोई पराया न दीखता हो ------
वह परमात्मा को खोजता नहीं स्वयं परमात्मातुल्य होता है ।
आज परमात्मा की खोज का बहुत बड़ा ब्यापार चल रहा है; कोई स्वर्ग का रास्ता दिखा रहा है तो कोई स्वर्ग का टिकट बेच रहा है लेकिन ज़रा सोचना --खोज किसकी संभव हो सकती है ?खोज उसकी संभव है
जो खो गया हो
जिसके रूप-रंग, ध्वनि , आकार-प्रकार एवं गंध तथा संवेदना का कोई अनुमान हो।
क्या हमें परमात्मा को पहचाननें वाले तत्वों का पता है ? सीधा उत्तर है--नहीं फ़िर हम कैसे उसे खोज रहें हैं ?
क्या पता परमात्मा हमारे ही घर में हो ?
क्या पता परमात्मा हमारे साथ-साथ रहता हो ?
क्या पता हम पमात्मा से परमात्मा में हों ?
क्या कभीं हम इन बातों पर सोचे हैं ? यदि उत्तर है-नहीं तो आप अपनी बाहर की खोज के रुख को बदलिए
अंदर की ओर और खोजिये अपनें केन्द्र को । जिस दिन एवं जिस घड़ी आप अपनें केन्द्र पर पहुंचेंगे उस घड़ी आप के अंदर इन्द्रीओं से बुद्धि तक बहनें वाली ऊर्जा का रूपांतरण हो जाएगा और तब जो दिखेगा वह होगा -------
परमात्मा ।
परमात्मा मन-बुद्धि की शून्यता का दूसरा नाम है और इसकी अनुभूति अब्याक्तातीत होती है।
भाषा बुद्धि की उपज है और भाव ह्रदय में बहती लहरें हैं जो भावातीत से उठती हैं --भावों के माध्यम से भावातीत
की अनुभूति ही परमात्मा है।
======ॐ====
Thursday, November 19, 2009
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