यहाँ इस पृथ्वी पर जितने लोग हैं सब का अपना - अपना संसार है । संसार जिसमें हम जीते हैं वह हमारे
मन का प्रतिविम्ब है जैसा जिस घड़ी मन वैसा उस घड़ी संसार । मन हर पल बदलता रहता है और उसके
अनुसार संसार भी बदलता रहता है । हमारा मन हमें उस संसार को समझनें नहीं देता जिसके अन्दर हमारा मन रचित संसार है।
गीता का संसार गीता-श्लोक 15.1---15.3 के मध्य बताया गया है जिसको इस प्रकार से समझा जा सकता है -----परमात्मा से परमात्मा में आदि-अंत रहित अविनाशी तीन गुणों के तत्वों से परिपूर्ण तीन लोकों में विभक्त तथा जिसकी स्थिति अच्छी तरह से नहीं है एवं जिसको बैराग्यावस्था में जाना जा सकता है वह गीता का संसार है ।
गीता-सूत्र 15.3 से ऐसा लगता है जैसे संसार गुणों के तत्वों से परिपूर्ण भोगों का कुबेर है और आदि गुरु शंकरा चार्य कहते हैं ---ब्रह्म सत्यम जगन्मिथ्या । गीता-सूत्र 7.12 ,7.13 , 14.19 , 14.20 , 14.23 , को जब आप देखेंगे तो आप को मिलेगा------संसार में ब्याप्त गुणों का सम्मोहन मनुष्य को परमात्मा से दूर रखता है और गुणों को करता समझें वाला द्रष्टा/ साक्षी रूप में गुनातीत हो कर परमानान्दित होता है ।
गीता के संसार को समझनें के लिए भोग से बैराग्य तक की यात्रा करनी पड़ती है । पहले स्वनिर्मित संसार
को जानों फ़िर गीता का संसार धीरे-धीरे स्वतः स्पष्ट होनें लगेगा जैसे-जैसे बैराग्य घटित होगा ।
=====ॐ=====
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