Thursday, November 19, 2009

हम अतृप्त ही रहेंगे क्या ?

छोटा बच्चा निर्विकार प्यार की मूरत होता है , खोजनें पर शायद ही कोई ऐसा मिले जो एक अबोध छोटे बच्चे से सम्मोहित न होता हो ।

बच्चे के कण-कण से प्यार की किरणें निकलती रहती हैं जो एक भार रहित नयूत्रिनों [neutrino ] कण की तरह हमारे शरीर में प्रवेश करती हैं और बिना संकेत देये हमारे अंदर की निर्विकार ऊर्जा के माध्यम को गतिशील कर देती हैं । हमारा मन-बुद्धि तंत्र सक्रीय होनें में कुछ समय लगता है लेकिन ये कण उसके पहले ही अपना प्रभाव डाल चुके होते हैं ।
मनुष्य अपनें को तृप्त करनें के लिए घर बनाता है, परिवार बनाता है और मन्दिर भी बनाता है लेकिन इतना करनें के बाद भी क्या तृप्त होता है ? ----अगर तृप्त नही है तो जरुर कोई बुनियादी कारण होगा । मनुष्य जिस प्यार के लिए परिवार्बनाता है वह प्यार नहीं वासना होता है , जो घर बनाता है उसका कारण भय होता है --वह सुरक्षा के लिए घर बनाता है और मन्दिर निर्माण के पिहे भी भक्ति-भाव न हो कर भय ही होता है ।
गुणों के प्रभाव में जो भी कर्म होगा उसकी निष्पत्ति अतृप्त ही होगी क्यों की ऐसे कर्म भोग कर्म होते हैं जिनके सुख में दुःख का बिज होता है । भोग कर्म के सुख-दुःख धुप-छाव की तरह आते - जाते रहते हैं अतः ऐसी स्थिति में त्रिप्तता का आनंद कैसे मिल सकता है ?
बचपन का समय प्यार से प्यार में गुजरता है और प्यार की मूल त्रिप्तता है , बचपन के बाद युवा अवस्था आती है जिसकी बुनियाद बासना होती है , बासना में मन-बुद्धि तंत्र अस्थिर होते है अतः ऐसी स्थिति में त्रिप्तता आ कैसे सकती है ?
तिप्तता का आना तब संभव होता है जब इन्द्रीओं से बुद्धि तक की ऊर्जा निर्विकार हो और ऐसा तब संभव है जब स्व के प्रति होश हो और स्व से जो होरहा हो उसके प्रति होश हो । गीता का सांख्य - योग की साधना से समत्व भाव का उदय होता है जिसके माध्यम से त्रिप्तता आती है न की भौतिक साधनों को इकट्ठा करनें से ।
साधन साद्य नहीं हैं साध्य के माध्यम हो सकते हैं ।
======ॐ=========

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