Thursday, November 19, 2009

सोच रहित सोच का क्या करूँ ?

सोच करना अति सरल है , मनुष्य सोच में पैदा होता है और सोच ही सोच में एक दिन शरीर भी छोड़ देता है।
क्या सोच शरीर के साथ समाप्त होजाती है ? इस सम्बन्ध में आप देखिये गीता सूत्र 8.6, 15.8 जो कहते हैं----
मनुष्य के शरीर को छोड़ कर जब आत्मा यात्रा पर निकलता है तब उसके साथ मन भी होता है । मन में
हमारे जीवन भर की सोचों का संग्रह होता है और यही सोचें आत्मा को विवश कर देती हैं नया शरीर धारण
करनें के लिए ।
सोच का प्रारंभ तो है लेकिन इनका अंत नही , एक सोच अनेक सोचों को पैदा करती है और यह क्रम चलता
रहता है---बुद्ध कहते हैं कामनाएं दुस्पुर होती हैं । कामनाएं कैसे पैदा होती हैं ? इस बात को समझना
जरुरी है । संसार में बिहर रही इन्द्रीओं की सूचनाओं के आधार पर मन- बुद्धि मिल कर सोच पैदा करते हैं ।
जब इन्द्रियाँ संसार से सूचनाएं एकत्रित करती हैं तब तो हम बेहोश रहते हैं और जब मन-बुद्धि सोच का
निर्माण करते हैं तब तक हमें होश नहीं आता पर जब सोच में फस जाते हैं तब कुछ सोच की किरण फूटती है
लेकिन तब तक काफ़ी देर हो गई होती है ।
सोच से बचना असंभव है लेकिन सोच को समझ कर सोच के खिचाव से बचना सरल है । जब इन्द्रियाँ
अपनें - अपनें बिषयों में पहुंचे तब हमें उनको वहीं पकड़ना चाहिए या यदि ऐसा सम्भव नहीं तो मन में
उठते विचारों को पकड़ कर निर्विचार होना सम्भव है । सोच की समझ को गीता समत्व -योग की संज्ञा
देता है ।
अलेक्सजेंडर जब संसार जीतनें के लिए तैयार हुआ तन महाबीर की तरह नंगे बदन वाले एक सन्यासी से मिलनें
गया, वह सन्यासी था दायोग्नीज । सन्यासी दरिया किनारे रेत पर सो कर सुबह की धुप ले रहा था।
अलेक्सजेंडर बोला --मैं भी आप की तरह मस्ती चाहता हूँ । संन्यासी बोला--आजा ! नदी का किनारा
बहुत बड़ा है , कौन रोकता है तुझे ? अलेक्सजेंडर बोला--अभी नही , पहले संसार को जीत लूँ , फ़िर आउंगा।
दायोग्नीज बोला वह दिन कभी नहीं आनेवाला और ऐसा ही हुआ भी ।
जीवन अभी है और सोच आगे ले जाती है । सोच में डूबा ब्यक्ति अपनें वर्तमान से दूर रहनें के कारण
अतृप्त रहता है ।

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