Wednesday, November 18, 2009

ब्रह्म दृष्टि में स्थित आत्मा, शरीर में स्थित रहते हुए भी शरीर से लिप्त नहीं होता.

जीव प्रकृति के गुणों का भोग करता हुआ प्रकृति में ही जीवन बिताता हे. यह उस प्रकृति के साथ उसकी संगति के कारण है. तो भी इस शरीर में एक अन्य दिव्य भोक्ता है, जो ईश्वर है, परम स्वामी है और साक्षी तथा अनुमति देने वाले के रूप में विद्यमान है और जो परमात्मा कहलाता है. जो व्यक्ति प्रकृति, जीव तथा प्रकृति के गुणों की अन्त:क्रिया से सम्बन्धित इस विचारधारा को समझ लेता है, उसे मुक्ति की प्राप्ति सुनिश्चित है. उसकी वर्तमान स्थिति चाहे जैसी हो, यहाँ पर उसका पुनर्जन्म नहीं होगा. कुछ लोग परमात्मा को ध्यान के द्वारा अपने भीतर देखते हैं, तो दूसरे लोग ज्ञान के अनुशीलन द्वारा और कुछ ऐसे हैं जो निष्काम कर्मयोग द्वारा देखते हैं. ऐसे लोग भी हैं जो यद्यपि आध्यात्मिक ज्ञान से अवगत नहीं होते पर अन्यों से परम पुरुष के विषय में सुनकर उनकी पूजा करने लगते हैं. ये लोग भी परमात्मा के विषय में श्रवण की मनोवृत्ति होने के कारण जन्म तथा मृत्यु के पथ को पार कर जाते हैं. जो परमात्मा को समस्त शरीरों में आत्मा के साथ देखता है और जो यह समझता है कि इस नश्वर शरीर के भीतर न तो आत्मा, न ही परमात्मा कभी भी विनष्ट होता है, वही वास्तव में देखता है. जो व्यक्ति परमात्मा को सर्वत्र तथा प्रत्येक जीव में समान रूप से देखता है, वह परम गति को प्राप्त करता है. जो यह देखता है कि सारे कार्य शरीर द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं, जिसकी उत्पत्ति प्रकृति से हुई है, जो देखता है कि आत्मा कुछ भी नहीं करता, वही यथार्थ में देखता है. शाश्वत दृष्टिसम्पन्न लोग यह देख सकते हैं कि अविनाशी आत्मा दिव्य, शाश्वत तथा गुणों से अतीत है. भौतिक शरीर के साथ सम्पर्क होते हुए भी आत्मा न तो कुछ करता है और न लिप्त होता है. यद्यपि आकाश सर्वव्यापी है, किन्तु अपनी सूक्ष्म प्रकृति के कारण, किसी वस्तु से लिप्त नहीं होता. इसी तरह ब्रह्म दृष्टि में स्थित आत्मा, शरीर में स्थित रहते हुए भी शरीर से लिप्त नहीं होता. जो लोग ज्ञान के चक्षुओं से शरीर तथा शरीर के स्वामी के अन्तर को देखते हैं और भव-बन्धन से मुक्ति की विधि को भी जानते हैं, उन्हें परम लक्ष्य प्राप्त होता है.

0 comments:

Post a Comment