Wednesday, November 18, 2009

मन को स्थिर रख कर सम बुद्धि से अनासक्त होकर कर्म करें.

वस्तुत: आसक्ति को त्याग कर सफलता और असफलता में सम बुद्धि से कर्म करना चाहिए. यह समत्वभाव ही योग कहलाता है. समत्वबुद्धियुक्त पुरुष सुकृत और दुष्कृत दोनों में अपनी आसक्ति त्याग देता है. ज्ञानी जन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्याग कर पुनर्जन्म के बन्धन से मुक्त होकर अमृतमय परमपद को प्राप्त होते हैं. समत्व को बनाये रखने के लिए मन का स्थिर होना आवश्यक है. दु:ख मिलने पर जिसका मन विचलित नहीं होता और सुख मिलने पर उसके प्रति जिसमें लालसा नहीं बढ़ जाती और जो राग, भय और क्रोध से मुक्त है, वह स्थिर मन वाला मुनि कहलाता है. जो व्यक्ति न तो शुभ की प्राप्ति से हर्षित होता है और न अशुभ के प्राप्त होने पर उससे घृणा करता है, वह पूर्ण ज्ञान में स्थिर है. जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को संकुचित करके खोल के भीतर कर लेता है, उसी तरह जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों को इन्द्रियविषयों से खींच लेता है, वह स्थिर बुद्धि वाला होता है. देहधारी जीव इन्द्रियभोग से भले ही निवृत्त हो जाय पर उसमें इन्द्रियभोगों की इच्छा बनी रहती है किन्तु परमानन्द में ध्यान लगाने से ये इच्छाएँ समाप्त हो जाती हैं. इन्द्रियाँ इतनी प्रबल व वेगवान होती हैं कि वे विवेकी पुरुष के मन को भी बलपूर्वक हर लेती हैं, जो उन्हें वश में करने का प्रयत्न करता है. इन्द्रियविषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाती है और ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और फिर काम से क्रोध प्रकट होता है. क्रोध से पूर्ण मोह उत्पन्न होता है और मोह से स्मरणशक्ति का विभ्रम हो जाता है. जब स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाती है, तो बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि नष्ट होने पर अध:पतन होता है. किन्तु आत्मनियन्त्रण से युक्त व्यक्ति रागद्वेष से रहित अपने वश में की हुई इन्द्रियों द्वारा विषयों को भोग कर भी स्वच्छ अन्त:करण वाला होता है. उस निर्मलता के होने पर इसके सम्पूर्ण दु:खों का अन्त हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त व्यक्ति की बुद्धि शीघ्र ही अच्छी प्रकार स्थिर हो जाती है. साधनारहित व्यक्ति का मन नियन्त्रण में नहीं रहता, उसकी बुद्धि भी श्रेष्ठ नहीं होती, ऐसे आस्तिक भाव से रहित व्यक्ति को कभी शान्ति नहीं मिलती, शान्तिरहित को कभी सुख भी नहीं मिलता. जिस प्रकार पानी में तैरती नाव को प्रचण्ड वायु दूर उड़ा ले जाती है, उसी प्रकार विचरणशील इन्द्रियों में से कोई एक जिस पर मन निरन्तर लगा रहता है, मनुष्य की बुद्धि को हर लेती है. जिस व्यक्ति की इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों से सब प्रकार से विरत होकर उसके वश में हैं उसी की बुद्धि निस्संदेह स्थिर है. जैसे समुद्र निरन्तर प्रवेश करती रहने वाली नदियों के जल को पाकर भी अचल प्रतिष्ठा वाला बना रहता है वैसे ही सकल भोग को पाकर भी निस्पृह व्यक्ति का मन अविकल रहता है. जिस व्यक्ति ने इन्द्रिय तृप्ति की समस्त इच्छाओं का परित्याग कर दिया है, जो इच्छाओं से रहित रहता है और जिसने सारी ममता त्याग दी है तथा अहंकार से रहित है, वही वास्तविक शान्ति को प्राप्त कर सकता है. यह आध्यात्मिक तथा ईश्वरीय जीवन का पथ है जिसे प्राप्त करके मनुष्य मोहित नहीं होता. यदि कोई जीवन के अन्तिम समय में भी इस तरह स्थित हो तो वह भगवद्धाम में प्रवेश कर सकता है.

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