Wednesday, November 18, 2009

इस जगत् में जो कुछ भी भौतिक तथा आध्यात्मिक है, सब ब्रह्ममय है.

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार - ये आठ प्रकार से विभक्त ब्रह्म की अपरा प्रकृति हैं. इसके अतिरिक्त ब्रह्म की परा प्रकृति है जो उन जीवों से युक्त है, जो भौतिक अपरा प्रकृति के साधनों का विदोहन कर रहे हैं. सारे प्राणियों का उद्गम इन दोनों शक्तियों में है. इस जगत् में जो कुछ भी भौतिक तथा आध्यात्मिक है, उसकी उत्पत्ति तथा प्रलय का कारण परमेश्वर है. ब्रह्म से श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है. जिस प्रकार मोती धागे में गुँथे रहते हैं, उसी प्रकार सब कुछ परमेश्वर पर ही आश्रित हैं. वह जल का स्वाद है, आकाश में ध्वनि है, पुरुष में पौरुष है, स्त्री में मातृत्व है. वह पृथ्वी की आद्य सुगन्ध और अग्नि की ऊष्मा है. वह समस्त जीवों का जीवन तथा तपस्वियों का तप है. वह बलवानों का बल, ज्ञानियों का ज्ञान, बुद्धिमानों की बुद्धि, तेजस्वियों का तेज और समस्त जीवों का आदि बीज है. जिनकी बुद्धि भौतिक इच्छाओं द्वारा मारी गयी है, वे देवताओं की शरण में जाते हैं और वे अपने-अपने स्वभाव के अनुसार पूजा के विशेष विधि-विधानों का पालन करते हैं. परमात्मा प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित है. जैसे ही कोई किसी देवता की पूजा करने की इच्छा करता है, परमात्मा उसकी श्रद्धा को उसी में स्थिर कर देता है, जिससे वह उस विशेष देवता की भक्ति कर सके. ऐसी श्रद्धा से समन्वित वह देवता विशेष की पूजा करने का यत्न करता है और अपनी इच्छा की पूर्ति करता है. किन्तु वास्तविकता तो यह है कि ये सारे लाभ केवल परमात्मा द्वारा ही प्रदत्त हैं. अल्पबुद्धि वाले व्यक्ति देवताओं की पूजा करते हैं और उन्हें प्राप्त होने वाले फल सीमित तथा क्षणिक होते हैं किन्तु परमेश्वर के भक्त परमधाम को प्राप्त करते हैं. समस्त जीव जन्म लेकर इच्छा तथा द्वेष से उत्पन्न द्वन्द्वों से मोहग्रस्त होकर मोह को प्राप्त होते हैं. किन्तु जो जरा तथा मृत्यु से मुक्ति पाने के लिए यत्नशील रहते हैं, वे बुद्धिमान व्यक्ति परमेश्वर की भक्ति की शरण ग्रहण करते हैं और ब्रह्म को पूर्णतया जानकर ब्रह्म ही हो जाते हैं. अविनाशी और दिव्य जीव ब्रह्म कहलाता है और उसका नित्य स्वभाव अध्यात्म या आत्म कहलाता है. जीवों के भौतिक शरीर से सम्बन्धित गतिविधि कर्म या सकाम कर्म कहलाती है. निरन्तर परिवर्तनशील भौतिक प्रगति अधिभूत (भौतिक अश्व्यिक्ति) कहलाती है. भगवान का विराट रूप जिसमें सूर्य तथा चन्द्र जैसे समस्त देवता सम्मिलित हैं, अधिदेव कहलाता है तथा प्रत्येक देहधारी के हृदय में स्थित परमेश्वर अधियज्ञ कहलाता है. जीवन के अन्त में जो केवल परमेश्वर का स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है, वह परमात्मा के ही स्वभाव को प्राप्त करता है. मनुष्य को चाहिए कि परमपुरुष का ध्यान सर्वज्ञ, पुरातन, नियन्ता, लघुतम से भी लघुतर, प्रत्येक का पालनकर्ता, समस्त भौतिक बुद्धि से परे, अचिन्त्य तथा नित्य के रूप में करें. इस जगत् में सर्वोच्च लोक से लेकर निम्नतम सारे लोक दु:खों के घर हैं, जहाँ जन्म तथा मरण का चक्कर लगा रहता है. किन्तु जो परम धाम को प्राप्त कर लेता है वह फिर कभी जन्म नहीं लेता. जो व्यक्ति भक्ति मार्ग स्वीकार करता है, वह ज्ञानार्जन, तपस्या, दान, दार्शनिक तथा सकाम कर्म करने से प्राप्त होने वाले फलों से वंचित नहीं होता. वह मात्र भक्ति द्वारा इन समस्त फलों को प्राप्त करता है और अन्त में परम नित्य धाम को प्राप्त होता है.

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