Wednesday, November 18, 2009

परमेश्वर प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित है.

सतोगुण में स्थित बुद्धिमान त्यागी, जो न तो अशुभ कर्म से घृणा करता है, न शुभकर्म में लिप्त होता है, वह कर्म के विषय में कोई संशय नहीं रखता. निस्सन्देह किसी भी देहधारी प्राणी के लिए समस्त कर्मों का परित्याग कर पाना असम्भव है. लेकिन जो कर्मफल का परित्याग करता है, वह वास्तव में त्यागी कहलाता है. जो आत्मसंयमी तथा अनासक्त है एवं जो समस्त भौतिक भोगों की परवाह नहीं करता, वह संन्यास के अभ्यास द्वारा कर्मफल से मुक्ति की सर्वोच्च सिद्ध अवस्था प्राप्त कर सकता है. जो ब्रह्म से तदाकार है, वह तुरन्त परब्रह्म का अनुभव करता है और पूर्णतया प्रसन्न हो जाता है. वह न तो कभी शोक करता है, न किसी वस्तु की कामना करता है. वह प्रत्येक जीव पर समभाव रखता है. उस अवस्था में वह परमेश्वर की शुद्ध भक्ति को प्राप्त करता है. केवल भक्ति से परमेश्वर को यथारूप मे जाना जा सकता है. जब मनुष्य ऐसी भक्ति से ईश्वर के प्रति समर्पित होता है तो वह परम तत्त्व में प्रवेश करता है. कर्मयोगी भी, समस्त प्रकार के कार्यों में संलग्न रह कर भी, प्रभु की कृपा से नित्य तथा अविनाशी धाम को प्राप्त होता है. सारे कार्यो के लिए प्रभु पर निर्भर रहकर और उसके संरक्षण में सदा कर्म करे और ऐसी भक्ति में प्रभु के प्रति सचेत रहे तो प्रभु की कृपा से साधक बद्ध जीवन के सारे अवरोधों को लाँघ जायेगा. परमेश्वर प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित है और कठपुतली की भाँति समस्त जीवों को अपनी माया से घुमा रहा है. अत: सब प्रकार से उसी की शरण में जाना चाहिए जिससे उसकी कृपा से परम शान्ति तथा परम नित्य धाम की प्राप्ति हो.

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