Wednesday, November 18, 2009

आत्मा अविनाशी है. यह ज्ञान शोक से मुक्ति दिलाता है.

योद्धा अर्जुन के मन में जो द्विविधा और अनिश्चय की स्थिति उत्पन्न हुई है वह साधक अर्जुन के मन की स्थिति भी होती है. हमारा मन देह और आत्मा दोनों से जुड़ा है. मन शरीर का एक हिस्सा है, इसलिए शरीर के पोषण और शारीरिक आनन्द के लिए ही उपाय करता रहता है. शरीर को सुख देने के लिए वह अनेक इच्छाएँ उत्पन्न करता है किन्तु जब इच्छाओं की पूर्ति नहीं हो पाती तो वह दु:खी होने लगता है. इसी प्रकार किसी प्रिय का विछोह होने पर भी मन शोकग्रस्त होकर सांसारिक सुखों के प्रति अनासक्त होता है और कर्म का प्रयोजन न ज्ञात हो पाने की स्थिति में अकर्मण्यता की ओर अग्रसर होता है. हम यह भी कह सकते हैं कि इच्छाओं की पूर्ति के लिए धन और सत्ता साधन बनते हैं. किन्तु हानि अथवा पराजय मिलने पर मन दु:खी होता है और कर्तव्यविमूढ़ हो जाता है. सांसारिक सुखों या भौतिकवाद के प्रति दौड़ उसे व्यर्थ लगती है. मन दु:खों से मुक्त होना चाहता है किन्तु आसक्ति और राग को छोड़ना नहीं चाहता अर्थात् मन द्विविधा की स्थिति में है. इस प्रकार योद्धा अर्जुन तथा साधक अर्जुन दोनों को जीवन की वास्तविकता से परिचित कराना और शोक से मुक्त करना आवश्यक है. कृष्ण बताते हैं कि मृत्यु की भयावहता से आतंकित होने अथवा शोक करने की आवश्यकता नहीं है. जीवात्मा शरीर की तरह नश्वर नहीं है. जिस प्रकार शरीरधारी आत्मा इस (वर्तमान) शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरन्तर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे शरीर में चला जाता है. धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होता. सुख तथा दु:ख का क्षणिक उदय तथा कालक्रम में उनका अन्तर्धान होना सर्दी तथा गर्मी की ऋतुओं के आने के समान है. वे इन्द्रिय बोध से उत्पन्न होते हैं और मनुष्य को चाहिए कि अविचल भाव से उनको सहन करना सीखे. जो पुरुष सुख तथा दु:ख में विचलित नहीं होता और इन दोनों में समभाव रखता है, वह निश्चित रूप से मुक्ति के योग्य है. अविनाशी, अप्रमेय तथा शाश्वत जीव के भौतिक शरीर का अन्त अवश्यम्भावी है. किन्तु जो इस जीवात्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसे मरा हुआ समझता है, वे दोनों ही अज्ञानी हैं क्योंकि आत्मा न तो मारता है और न मारा जाता है. कारण यह है कि आत्मा के लिए किसी भी काल में न तो जन्म है और न मृत्यु. वह न तो कभी जन्मा है, न जन्म लेता है और न जन्म लेगा. वह अजन्मा, नित्य, शाश्वत तथा पुरातन है. शरीर के मारे जाने पर वह मारा नहीं जाता. जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने तथा व्यर्थ के शरीरों को त्याग कर नवीन भौतिक शरीर धारण करता है. यह आत्मा न तो कभी किसी शस्त्र द्वारा खण्ड-खण्ड किया जा सकता है, न अग्नि द्वारा जलाया जा सकता है, न जल द्वारा भिगोया या वायु द्वारा सुखाया जा सकता है. यह आत्मा अखण्डित तथा अघुलनशील है. इसे न तो जलाया जा सकता है न ही सुखाया जा सकता है. यह नित्य, सर्वव्यापी, अविकारी, स्थिर तथा सदैव एक सा रहने वाला है. यह आत्मा अव्यक्त, अकल्पनीय तथा अपरिवर्तनीय कहा जाता है. अत: शरीर के लिए शोक नहीं करना चाहिए. फिर भी यदि कोई यह सोचता है कि आत्मा सदा जन्म लेता है तथा सदा मरता है तो भी शोक नहीं करना चाहिए क्योंकि जिसने जन्म लिया है, उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म भी निश्चित है. अत: अपने अपरिहार्य कर्तव्यपालन में किसी को शोक नहीं करना चाहिए. सारे जीव प्रारम्भ में अव्यक्त रहते हैं, मध्य अवस्था में व्यक्त होते हैं और विनष्ट होने पर पुन: अव्यक्त हो जाते हैं. अत: शोक करने की आवश्यकता नहीं है.

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