Wednesday, November 18, 2009

श्रीमद्भगवद्गीता

  1. आत्मज्ञान स्वयं के प्रयासों से भी प्राप्त किया जा सकता है.
  2. यह संसार एक रणक्षेत्र है.
  3. प्रत्येक जीव आनन्द पाना चाहता है और यह तीन प्रकार का होता है.
  4. रागात्मक सम्बन्ध प्राय: मन को भ्रष्ट करता है.
  5. आत्मा अविनाशी है. यह ज्ञान शोक से मुक्ति दिलाता है.
  6. आध्यात्मिकता का अर्थ कर्म का त्याग या पलायनवाद नहीं है.
  7. मन को स्थिर रख कर सम बुद्धि से अनासक्त होकर कर्म करें.
  8. कर्तापन के अभिमान से रहित होकर परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहने का नाम ‘ज्ञान योग’ है. फल और आसक्ति को त्याग कर कर्म करना ‘कर्मयोग है.
  9. कर्मयोग श्रेष्ठ है.
  10. परमेश्वर न तो किसी के पापों को ग्रहण करता है, न पुण्यों को.
  11. बुद्धि, मन, श्रद्धा परमेश्वर में स्थिर होने पर मुक्ति का पथ मिलता है.
  12. स्थिर मन मित्र तथा चंचल मन शत्रु होता है.
  13. इस जगत् में जो कुछ भी भौतिक तथा आध्यात्मिक है, सब ब्रह्ममय है.
  14. देवताओं व पितरों की पूजा छोड़कर परमात्मा में ध्यान लगाने से ही स्थायी शांति मिलती है.
  15. कर्मयोग मुक्ति का सबसे सरल मार्ग है.
  16. ब्रह्म दृष्टि में स्थित आत्मा, शरीर में स्थित रहते हुए भी शरीर से लिप्त नहीं होता.
  17. जो विनिवृत काम तथा द्वन्दों से मुक्त है, वह शाश्वत पद को प्राप्त होता है.
  18. परमेश्वर प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित है.

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