Wednesday, November 18, 2009

आइंस्टाइन और गीता

क्या आप जानते हैं किआइंस्टाइन को गीता प्रियतम था ?
आइंस्टाइन कहते हैं ........when i read bhagvat-geeta and reflect about how God created this
universe,everything else seems so superfluous। सन १९१७ में आइंस्टाइन का वह शोध-पत्र जिसमें
ब्रह्माण्ड -रहस्य छिपा हुआ है ,उसकी प्रेरणा गीता के श्लोक ८.१६ से ८.२० तक,२.२८,७.४ से ७.६ तक,१४.३,
१४.४,१३.५ एवं १३.६ से मिलीथी अब हम इन सूत्रों का सारांश देखते हैं
आनंद बुद्ध से पूछते हैं.......भंते! परमात्मा क्या है? बुद्ध कहते हैं........परिभाषा उसकी होती है जो होता है
परमात्मा तो होरहा है गीता श्लोक २.२८ भी यही बात भूतों के बर्तमान अस्तित्वके सम्बन्ध में कह रहा है
सब का जीवन एक यात्रा है जो अब्यक्त से प्रारम्भ होती है और अब्यक्त में समाप्त हो जाती है
गीता बताता है ......ब्रह्मलोक सहित सभींलोक पुनरावर्ती हैं अर्थात परमात्मा को छोड़ कर सभी सूचनाएं
टाइम-स्पेस के अधीन हैं भूतों कि रचना अपरा एवं पराप्रकृतियों के नौतत्वों तथा आत्मा-परमात्मा
से हैचार युगों कि अवधिसे हजार गुना अवधि में भुत होते हैं और इसके बाद इतनें ही समय तक पुरा
ब्रह्माण्ड रिक्त होता है जिसमें कुछ नहीं होता विज्ञानं का विकास -सिद्धांत में एक कोशिकीय जीवों
से बहु कोशिकीय जीवों के विकास कि बात हम देखते हैं लेकिन गीता का विकास-सिद्धांत गीता श्लोक
अद्याय ७,१३ तथा १४ के सूत्रों में छिपा है मनुष्यों के होनें कि बात मात्र चार युगों तक सीमित है फिर
चार युगों कि अवधि से ९९९ गुने अवधि जिसमें मनुष्य नहीं होता पर जीव होते हैं वह जीव किस प्रकार
के होते होंगे.....आप ईस रहस्य को गंभीरता से ले

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