Wednesday, November 18, 2009

रागात्मक सम्बन्ध प्राय: मन को भ्रष्ट करता है.

रागात्मक सम्बन्ध मन को कई प्रकार से भ्रष्ट करता है. रागात्मक सम्बन्ध या पुत्र मोह में अंधा होकर ही हस्तिनापुर का राजा धृतराष्ट्र अन्याय का प्रवर्तक बन जाता है. रागात्मक सम्बन्ध से अभिभूत होकर अर्जुन क्लैव्यता को ग्रहण कर लेता है और धर्म की स्थापना के लिए लड़ना नहीं चाहता है. अपने पन्थ, मजहब, सम्प्रदाय या जाति का मानकर लोग आतंकवादियों और उग्रवादियों की सहायता करने लगते हैं. इस प्रकार की भावनाओं के कारण ही नृशंसता और अन्याय को फलने-फूलने का अवसर मिलता है. रागात्मक सम्बन्ध कर्तव्यविमूढ़ता भी उत्पन्न करता है. एक न्यायाधीश बिना किसी हिचक के अपराधी को मृत्युदण्ड दे देता है किन्तु जब अपना ही पुत्र अपराधी हो तो वह उसे मृत्युदण्ड से बचाने का ही प्रयत्न नहीं करता बल्कि यह भी कहने लगता है कि मृत्युदण्ड अमानवीय है. यदि न्यायाधीश यह सोचता है कि परिवार के पालन और उससे मिलने वाले आनन्द के लिए ही वह नौकरी कर रहा है और अपराधी पुत्र के न रहने पर उसका आनन्द चला जायेगा तथा इस तर्क पर वह निश्चय करता है कि उसे पुत्र के विषय में निर्णय ही नहीं देना चाहिए तो सम्भवत: सभी लोग कहेंगे कि न्यायाधीश को न्याय करने और अपराधी को दण्ड देने के कर्म से विरत नहीं होना चाहिए क्योंकि यह धर्म और मर्यादा के विरुद्ध है. जनता जनार्दन के इसी मत को कृष्ण भी व्यक्त करते हुए कहते हैं कि इस प्रकार का कदम हृदय की दुर्बलता है और विपक्षी तो अर्जुन को कायर और भगोड़ा ही कहेंगे. जिस रागात्मक सम्बन्ध को अर्जुन देख रहा है वह एकपक्षीय है क्योंकि कौरव तो उसे दुश्मन के रूप में देख रहे हैं. अतएव दोनों दृष्टियों से उसका निर्णय अनुचित है.

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