Wednesday, November 18, 2009

प्रत्येक जीव आनन्द पाना चाहता है और यह तीन प्रकार का होता है.

यह तो स्पष्ट ही है कि प्रत्येक जीव आनन्द पाना चाहता है. इन्द्रियों के विषयों से प्राप्त आनन्द अधम है जो अस्थायी प्रकृति का होता है और आसक्ति उत्पन्न करता है. आवश्यकता से अधिक इसका भोग व्याधि का कारण बनता है. परिजनों के साहचर्य से मिलने वाला आनन्द मध्यम है जो कुछ वर्षों का हो सकता है, राग उत्पन्न करता है और परिजन से विछोह पर राग के अनुपात में शोक उत्पन्न करता है. आत्मानुभूति से मिलने वाला आनन्द उत्तम है जो स्थायी प्रकृति का होता है और जिसका चरम परम मुक्ति है. अर्जुन जितेन्द्रिय होने के कारण विषयों की आसक्ति से मुक्त है किन्तु वह राग से मुक्त नहीं है. इसीलिए पारिवारिक कलह के कारण आसन्न युद्ध के पक्षकारों को जब साधक अर्जुन देखता है तो सर्वत्र उसे परिजन ही खड़े दिखायी देते हैं. उसे लगता है कि इन सम्बन्धियों को मार देने पर रागयुक्त आनन्द से वह वंचित हो जायेगा. विषयों के आनन्द को क्षणभंगुर समझकर वह पहले ही त्याग चुका है. आध्यात्मिक आनन्द से वह परिचित नहीं है. अब रागयुक्त आनन्द भी खण्ड-खण्ड हो गया तो उसके पास क्या बचेगा. कहा गया है कि बिना प्रयोजन के मनुष्य कोई काम नहीं करता. अर्जुन को धर्म और अधर्म के बीच का यह युद्ध व्यर्थ का लगता है क्योंकि वह इसके परिणाम को आनन्द के दृष्टिकोण से देखता है. प्रयोजन नहीं तो कर्म नहीं. एक क्षत्रिय या योद्धा का कर्तव्य है धर्म की रक्षा करना किन्तु वह राग में फँसकर युद्ध से भाग रहा है. इच्छा-शक्ति के अभाव में वह युद्ध के अयोग्य हो गया है. यह कर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति है.

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